विश्वनाथ-काशी के अधिपति

विश्वनाथ-काशी के अधिपति
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'भोलेबाबा, कैसे तुम काशी के बन पाते अधिपति!
यदि तेजस्वी दिवोदास सम्राट की भ्रमित न होती मति!!'

उमासंग जब ब्याह हुआ तब शिव का धाम हुआ कैलास ।
वहीं रह गये सपरिवार सदियों तक करते रहे निवास।।

उमा मायके जातींथीं परिजन से मिलने राजमहल ।    
शिव की प्रिया, हिमालय-तनया, मां की ममता में विह्वल। 

मैनावति की एक सहेली बातूनी मिलने आई । 
 प्रश्न पूछकर चतुराई से घर में लगा गयी लाई ।
                                   
जामाता जी क्यों सदैव ससुराल में रहते हैं गोई?
लोग बात करते हैं - क्या उनका है  गेह नहीं कोई?

मैना बोली-'चुप रह, ऐसी बात न फिर मुंह पर लाना ।
शिवजी त्रैलोकेश्वर है,चाहे जहां करें आना-जाना । 

पार्वती ने अगर सुन लिया तो उसको बेहद दु:ख होगा ।
शंकर क्रोधित हुए तो बोलो कौन वहां सन्मुख होगा '।

लेकिन गिरिजा ने परदे के पीछे सुन ली सारी बात ।
तड़के उठ कैलास को गयीं,नींद न आयी सारी रात ।

भोले हुए प्रसन्न देख बोले -मैं सहसा हुआ चकित ।
क्यों उदास हैं उमा, थकी हैं अथवा किस कारण चिंतित!

बोलीं गिरिजा-'नाथ आपका गेह कहां है, स्थायी वास ?
हम अब वहीं चलेंगे करने को जीवन-पर्यंत निवास '।

शिव जी चौंके, बोले- 'ऐसा प्रश्न किसी ने किया नहीं ।
मेरा अपना घर-दुआर हो,परामर्श भी दिया नहीं ।

अब मैं शीघ्र ढूंढ लूंगा, धरती का सुंदरतम  स्थान ।
तप -व्रत-रत हम रहें जहां हो मंदिर,भैरव और मसान '।

कुछ गणदूतों को भोले ने पास बुलाया और कहा -
'जाओ दिव्य स्थान ढूंढ कर आओ मेरे योग्य यहां।'

बीत गये कुछ माह नहीं लौटे गण भोले हुए उदास ।
फिर भेजे गण ढूंढ के आओ ,कहां करेंगे हम रहवास!

वे भी लौटे नहीं शंभु की चिंता बढ़ी नये गणदूत ।
भेजे गये स्थान ढूंढने, संग गुप्तचर, भैरव, भूत ।

कोई वापस आया नहीं शर्व तब बोले-'पुत्र गणेश ।
तुम जाओ स्थान ढूंढने ,मां का मन मेरा आदेश ।

सभी गणों ,दूतों को भी अनुशासन पूर्वक ले आना ।
जहां सुमति, समरसता,संवेदन -प्रगाढ़ हो रुक जाना।

गंगा की तटवर्ती मिट्टी उर्वर है, जीवन पावन ।
मेरा हो चिरवास वहीं परिवार सहित मंगल -कानन ' ।

गणपति ने देखा सब गण देवाराधन में रमे हुए ।
पंचक्रोसी -परिक्रमा के पावन पथ में जमे हुए ।

मणिकर्णिका, कंदवा ,भीमचंडी, चौखंडी रामेश्वर ।
पांचो पंडवा,शिवपुर ,कपिलाह्लद,कोटवा आदिकेश्वर ।

गण भयभीत बोले - 'गणनायक इतना पावन स्थान कहां?
क्षमा करें हम यहीं रम गये लगता प्रभु का ध्यान यहां ' ।

'परम तपस्वी और यशस्वी दिवोदास सम्राट यहां ।
न्याय-धर्म का शासन है ,सबजन की रहती ठाट यहां ।

दिवोदास हैं अपराजेय,डिगा नहीं पाया कोई ।
उनकी सहमति बिना राज्य में शूर नहीं आया कोई '।

बुद्धिविनायक ने सोचा कैसे आयेंगे गिरिजेश्वर !
दिवोदास की संप्रभुता में कैसे रह सकते हैं हर?

तत्क्षण राजभवन पहुंचे गणनायक करने विषय- विमर्श ।
हर्षित हुए देख कर जनप्रिय दिवोदास का चरमोत्कर्ष ।

राजा ने सम्मान दिया फिर श्रद्धापूर्वक कहा-'गणेश ।
गिरिजापति को नमन कोटिश: मुझको क्या देंगे संदेश'!

अभिवादन करके गणेश ने कहा-'यशस्वी भव राजन !
काशी में निवास करने को इच्छुक हैं त्रिभुवन -भावन'।

बुद्धिविनायक ने राजा की मति को कर दी सम्मोहित ।
अहंभाव आ गया हो गये दिवोदास सत्पथ -विचलित ।

बोले-'मेरे राज्यमें  शिव जी जबतक चाहें वास करें ।
राज्यादेश नहीं आवश्यक चाहे जहां निवास करें' ।

'मेरा राज्य' शब्द में अहंभाव देख बोले - 'गणपति ।
काशिराज्यअब त्रैलोकेश्वर के अधीन है,शिव हैं अधिपति।

राजा आप रहें लेकिन शिव जी होंगे काशी के ईश ।
यहीं राजधानी होगी, पालनकर्ता होंगे जगदीश ।'

नतशिर दिवोदास ने अपना अहंकार स्वीकार किया ।
अधिपति का ध्वज राजभवनसे बिना विलंब उतार दिया ।

तत्क्षण जा कैलास गणेश ने शिव से सब वृत्तांत कहा।
दिवोदास का यश ,मतिभ्रम,गणदूतों का जो यात्रांत रहा ।

सपरिवार काशी में आकर बसे शंभु अवढर दानी ।
काशी विश्वनाथ कहलाये,  काशी बनी राजधानी ।

काशीवासी  राजा को शिव जी का प्रतिनिधि एकमेव,
मानते रहे हैं, उन्हें देख कहते हैं- हर -हर महादेव !!

--नरेंद्र नीरव

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